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Tuesday, September 21, 2010

' गठबंधन खुलि खुलि जाय ''

लघु कहानी

बिदा हुई बरसात , चूने सी सफेद धूप फेलने लगी सुबह से ..... वक़्त कुछ इसी तरह से चलता ही रहता है .... फांस किस तरह से रह - रहकर दिल के कोने में पडी चुभती रहती है , ये शायद 'तुम' नहीं जानते होगे , हाँ ..... उस दिन की ही तो बात है अचानक तुम्हारा फ़ोन आया तुमने मेरे घर का पता पूछा था और थोड़ी देर में ऑटो से मेरे घर को खोज लिया था , तुमने घंटी बजाई थी ...धडकते रेलमपेल मन के साथ बड़ी मुश्किल से दरवाजे की कुंडी मेरे हाथों से खुल पाई थी , मुझे अहसास है कि विगत ३२ . ३५ सालों से तुम मुझे कितना चाहते हो पर इस ढाई अक्षर की भावनाओं को तुमने कभी प्रकट नहीं होने दिया , न ही तुमने इन ३२ सालों में कभी मेरी आँखों में झांक कर देखा ... वक़्त के सफ़र में पीछे छूट जाते है अहसास , उनकी सजल स्मृति नम करती है मन और आखों को .......प्रेम एक नितांत व्यकिगत एवं आत्मिक अनुभूति है , उसे परिभाषित करने के दायरे में बंधना मुश्किल है ........दरअसल तुम भी तो जीवन भर शर्मीले बने रहे और में भी बनी रही शर्मीली ......., हाँ , मुझे याद है जब में ८वी क्लास में पड़ती थी तभी से तुम मुझे छुप छुप कर निहारते रहते थे ,............., संस्कार और संकोच में लिपटे दिन रात सरपट सरपट भागते रहे ....... में ब्याह कर इस तरफ चली आयी और .....तुम उस तरफ अकेले मुड गए .... पर मुझे पता है कि तुमने इन ३२ सालों में अपने दिल को कितना बड़ा बना लिया और मुझे यह भी पता है कि इन ३२ सालों में तुमने जितनी भी लम्बी और गहरी सांसे ली है उनमे तुमने मुझे ही पाया है ,.....शायद तुम्हे नहीं मालूम कि नारी का मन समुद्र से भी गहरा होता है , ... ब्याह भी हो जाता है , बच्छे भी हो जाते है , पर बचपन में दिल में उठी वह चाहत जीवन भर दिल के एक कोने में कुलबुलाती रहती है , तुम तो जानते हो न कि प्रेम कोई खेल नहीं एक उदात्त भावना है और यह भावना एक जलते हुए अलाव की तरह होती है जिसकी आंच इसकी मध्यिम मधिम गर्मी जीवन भर सुहावनी लगती है ,........ तुम्हारा भोलापन और 'तुम' हर साँस पर उपस्तित रहे आए..... न तुमने प्रकट किया न मेने ........ तुम्हे कैसे बताएं कि अंतरंगता को परिभाषित करना कितना कठिन होता है पर इसके साथ अटूट विश्वास जुड़ा होता है , तभी न हमेशा लगता रहता है कि जहाँ तक नजर जाती है उधर तक तुम ही तुम नजर आते हो ,......... तुम ३२ साल बाद मेरे घर आये , मेने बहुत औपचारिकता के साथ तुम्हे बिस्कुट चाय दी ,.... महिलायों की आदत के मुताबिक तुम्हारे बीबी , बल बचों की खोज परख ली और फिर इतने सालों बाद भी तुम्हे न चाहने का नाटक भी किया तुम थोडा हतास से हुए थे उस वक़्त ...........फिर भी चूँकि तुम इतने दूर से मेरे शहर में आये और तुमने मुझे खोज ही लिया तो यह भी जायज है कि तुम इस शनिवार को मेरे पति और बच्चों के साथ खाना खा सको , सो बहुत औपचारिकता के साथ मेने तुम्हे खाने को बुला लिया है ..........थोड़ी देर बाद तुम अपने होटल की तरफ चले गए थे ,...........जब शाम को पति जी थके हारेघर आये तो उन्हें इस आमन्त्रण के बारे में जब मेने बताया तो झट से वे बोले कि कोई बहाना कर देते है , तुन्हारी तबियत हमेशा ख़राब रहती है कहाँ इतना सारा खाना बना सकोगी ,................................., में चुप रही ..........थोड़ी देर को लगा धरती डोल रही है , ... ' तुम ' याद आये ....फिर याद आये ,.....हाँ बहुत याद आये और तुम्हारे साथ ज़माने भी याद आये ..............बाहर अँधेरा पसारने लगा था ,....... मन में जलते हुए अलाव एवं हाथ में गरम चाय लेकर में पति के सामने झुकी थी , पति जी थके थे पर धीरे से मुस्कराते हुए चाय का शिप लेने लगे थे ........ तभी चुपके से मेने तय किया कि जब कोई भी घर में नहीं होगा तब तुम्हे बुलाकर कुछ खिला दूंगी ,.......२५ साल से तो अभी तक पतिव्रता धर्म का पालन तो कर रही थी,......................
--जय प्रकाश पाण्डेय
उमरिया 

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