गांधीजी आज हमारे बीच होते तो देश की मौजूदा दोहरी शिक्षा नीति का अवश्य ही खुला विरोध करते । आज देश में दो समांतर शिक्षण व्यवस्थाएं चल रही है, एक अंग्रेजी आधारित व्यवस्था जिसे येनकेन प्रकारेण अपने पूरी आमदनी लगाकर बच्चों के लिए अपनाने को अधिसंख्य लोग विवश हैं, तो दूसरी ओर वह व्यवस्था है जो समाज के कमजोर असंपन्न लोगों के लिए बची रह जाती है, जहां शिक्षा के यह हाल हैं कि प्राथमिक स्तर पार कर चुकने के बाद भी अनेकों बच्चे अपना नाम क्षेत्रीय भाषा माध्यम में भी लिख नहीं सकते हैं ।
अंग्रेजी स्कूल खुलकर भारतीय भाषाओं का विरोध नहीं करते हैं, किंतु वहां यह परोक्ष संदेश अवश्य मिलता है कि अपनी भाषाओं की कोई अहमियत नहीं है, और यह कि अंग्रेजी के बिना व्यक्ति और देश आगे नहीं बढ़ सकते हैं । जिस अंग्रेजी के संदर्भ में गांधी को यह कहते बताया जाता है कि “दुनिया को बता दें कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता है ।” उसी अंग्रेजी को अब अपरिहार्य घोषित किया जा रहा है । ठीक है कि अंग्रेजी की स्वयं में अहमियत है – खास अहमियत है – लेकिन इस तथ्य को भुलाया नहीं जा सकता है कि यह सामाजिक विभाजन का एक कारण भी बन रहा है । देश आज संपन्न ‘इंडिया’ एवं पीछे छूटते ‘भारत’ में बंट रहा है । समाज वैसे ही तरह-तरह से बंटा है, और यह एक अतिरिक्त विभाजक समाज में प्रवेश में कर चुका है । समाज में एक ऐसा वर्ग जन्म ले रहा है जिसका तेजी से पाश्चात्यीकरण हो रहा है, और जो अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटता जा रहा है । महात्मा गांधी के लिए अवश्य ही आज की स्थिति विचलित करने वाली होती । तो क्या इन बातों पर विचार नहीं होना चाहिए ?
---jai prakash pandey
sbi- rseti ,umaria
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