तीजन बाई को सब जानते हैं। लोग कहते-लिखते हैं तीजन बाई बहुत बड़ी इंटरनेशनल फेम लोक कलाकार है। पंडवानी पर अपनी विशेष अदायगी के लिए वे पदमश्री से भी नवाजी जा चुकी हैं, पर तीजन बाई को अपनी उपलब्धियों का जरा सा भी गुरूर नहीं है। अपने बारे में, अपनी कला के बारे में और अपने देस के बारे में वे क्या सोचती हैं, जानिए उन्हीं की जुबानी…
ईमानदारी से कहूं मैं आज भी गांव की औरत हूं। सब काम करती हूं। सब्जी बनाती हूं। चटनी बनाती हूं। धान मिंजाई व ओसाई भी कर लेती हूं। आप अपने मन ही बतावो मैं कहां से बड़ी हूं। मेरे दिल में कुछ नहीं है …ऊंच-नीच, गरीब-अमीर कुछ नहीं, मैं सभी से एक जैसे ही मिलती हूं। बात करती हूं। बच्चों बूढ़ों के बीच बैठ जाती हूं। इससे दुनियादारी की कुछ बातें सीखने तो मिलती है और अनुभव भी बाढ़थे। ऎसे में कोई कुछ-कह बोल भी दे तब भी बुरा नहीं लगता। खराब छपने का भी बुरा नहीं मानती।
भोपाल के एक पत्रकार ने छापा था कि तीजनबाई डिस्को डांस के समान पंडवानी करती है, ओव्हर मेकअप करती है, ओव्हर पहनती है, वैसा लोक कलाकार को नहीं करना चाहिए। ऎसा बुरा छपने का भी बुरा नहीं लगा… पर सोचना चाहिए, आदिवासी औरतें आज भी कुछ नहीं पहनती, लुगरा पहनती हैं बिना बेलाउज के रहती है। बीड़ी फूंकती हैं, सुट्टा लगाती हैं… मैं भी पहले गांव में ऎसे ही रहती थी। लेकिन आज युग बदल गया है आज मैं जो पहन रही हूँ वह कैसे ओव्हर हो गया सलवार सूट भी तो मैंने नहीं पहनी, न पहलूंगी, साड़ी-पोलखा पहनती हूं। मेकअप का ये सामान देखो, इसमें क्या, पाउडर- क्रीम और बोरोलीन ही तो है क्या ये फुल मेकअप है! मैं पूछती हूं क्या काजर लगाना, टिकली-माहूर सजाना, मांग में सिंदूर भरना, बारों महीना हाथ पर चूडी़ पहरना कैसे ओव्हर है भाइ! मैं आज भी एक टेम बोरे बासी (रात में पका चावल पानी में डालकर) और टमामर की चटनी खाती हूं।मेरे घर में एक टेम सभी बासी खाते हैं। लोग पूछते-बोलते हैं, तीजनबाई कुछ नाश्ता किया करो तो मैं बोलती हूँ आप अपने मन का नाश्ता करते हो तो मैं बासी क्यों नहीं खा सकती क् भई, बोरे-बासी छत्तीसगढ़ का अमृत है… जौउन ला खाके हम अन जितना काम कर सकते हैं उतना दूसरा भोजन या नाश्ता करके नहीं किया जा सकता। बासी के सामने शराब का नशा भी कुछ नहीं है।
बिदेस खूब घूम डाली हूं, पर अपना देस अलग है वहाँ एक टाइप की कला है यहां विविध कलाएं हैं। मैं धार्मिक सिनेमा को छोड़कर दूसरा कोई सिनेमा भी नहीं देखती, किसी हीरो-हीरोइन को भी नहीं जानती। बचपन में जब दो रोटी भी घर में नहीं थी फिल्म कहां से देखती। पदमश्री मिलने का दिन आज भी मोर सुरता में है, वेंकटरमनजी ने दिया था। उसी दिन इंदिरा गांधी से भी मिली थी बहुत अच्छी लगी, उन्होंने मेरी पंडवानी सुनी थी। मुझे बुलाकर बोली- छत्तीसगढ़ की हो ना। मैने हाँ कहा तो इंदिरा बोली महाभारत करती हो तो मैं बोली पंडवानी सुनाती हूं महाभारत नहीं कराती, सुनकर इंदिराजी खुश हुई और मेरी पीठ थपथपाई थीं।
युग बदल गया तो मैं भी बदल गई लेकिन इतनी नहीं बदली कि लोग अंगुली उठाएं। मैं जो पहनती हूं वही पूरा छत्तीसगढ़ है, अऊ मोर छत्तीसगढ़ के ये श्रृंगार है। यह बुरा कैसे हो सकता है। रही बात डिस्को की, मैं कभी डिस्को नहीं देखती। किसी स्कूल के प्रोग्राम में चीफ गेस्ट बना देते हैं तो देखती हूं छोटे-छोटे लइका लइकी को डिस्को करते, बच्चों का डिस्को करना अच्छा लगता है पर हमारी लोककला में जो बात है वह बिदेशी नाच-गाना में नही। बिदेशी नाच में कमर जरूर हिलबे , अऊ हमार लोककला में दिल हिलबेे। लोककला के बारे में कछू कहना-लिखना आसान है। लेकिन, एला बचाने में बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। अब मेरी अपनी ही बात बताऊं पंडवानी में करांति आ गई है फिर भी मेरे अपने घर में मेरी लोककला का कोई का बस में नहीं है। अच्छी-खासी फौज है बहू-बेटा, नाती पोतों की, पर कोई भी पंडवानी से जुड़ा नहीं है। इसका मुझे कोई दुख भी नहीं है। बाहर कोई कलाकार तो होगा उसे तैयार करूंगी और अपनी कला देकर जाऊंगी, जिसमें प्रतिभा होगी। मेरे बच्चे आज वो सब कर रहे हैं जो मैं नहीं कर पाई यानी मैं एक किलास (क्लास) भी नहीं पढ़ पाई। पढ़ाई न करने का कोई दुख भी नहीं है। हो सकता है पढ़-लिख लेती तो शायद लोककला से नहीं जुड़ पाती।
प्रस्तुति -जय प्रकाश पाण्डेय
माइक्रो फाइनेंस शाखा , भोपाल
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