Here is my story of Citizenship Orientation Programme (COP). It took some time to come out in this shape, though the seeds were sown during the two day wonderful experience of Facilitators' Gym at SBLC, Bhopal.
ये कहानी पेड बनने की कहानी है सच्ची-मुच्ची के पेड़ों के बनने की। फर्क सिर्फ़ ये है कि ये ऐसे-वैसे पेड नहीं होते। ये होते हैं ज़िन्दगी के पेड, या बोलें तो अपनी ज़िन्दगी में कमी के पेड।
अब भइया, इनमें से हर पेड आधा ज़मीन के ऊपर दिखता है- जैसे हमारी ज़िन्दगी के वो पहलू जो दूसरों को दिख पाते हैं, सो उनमें लगाने वाले फल भी दूसरों को दिखते हैं। और आधा पेड ज़मीन के अन्दर होता है, यानी ख़ुद के भीतर। तो इसमें जो फल लगते हैं, वो सिर्फ़ अपने को दिखते हैं, और किसी को नहीं।
और ये पेड ऐसे नहीं बन जाते कि बस खाद-पानी दिया गया और वो बड़े हो गए। इनको बड़ा और फलदार बनाने के लिए ख़ुद को डालना पड़ता है। अपने को इन्वाल्व कर के जब हम अपने रूटीन काम-काज से आगे बढ़ कर, कुछ ज़्यादा प्रयास कर के और कभी-कभी तो कुछ तकलीफ भी उठा कर, कुछ ऐसा करते हैं जो कुछ नया होता है और किसी दूसरे की ज़िन्दगी या आस-पास के माहौल में कुछ बेहतरी लाता है, तब बड़े होते हैं ये पेड!
मगर ऐसा कर पाना आसान नहीं होता- डर लगता है, हिम्मत नहीं पड़ती, या आलस आता है। पर फ़िर अगर हम तय कर लें कि कुछ करना ही है, या कभी-कभी, जाने-अनजाने अन्दर से कुछ प्रेरणा मिलती है तो हम ऐसे काम कर ही गुज़रते हैं। और ऐसा करने पर हमें जो तारीफ़, इज्ज़त, लोगों का प्यार, और कभी-कभी कुछ बाहर दिख जाने वाले फायदे मिलते हैं, तो वो होते हैं बाहरी फल। लेकिन उनसे ज्यादा हमें वो फल अच्छे लगते हैं न, जो हमारे अन्दर लगते और बढ़ते हैं, जैसे ज्यादा हिम्मत, ज्यादा भरोसा अपने आप पर, जो हमें और मज़बूत बनाते हैं। और जब ये फल मिलते हैं तो साथ में मिलते हैं कुछ कर पाने, कर गुजरने पर भरा-पूरा होने की अनुभूति, थोड़ा सा गर्व आस- पास की दुनिया में कुछ बदलाव ला पाने पर, और कभी-कभी तो सिर्फ़ कुछ कर लेने पर आने वाला मज़ा कि भाई वाह!
और तब ऐसा लगता है न कि जैसे तारे ज़मीन पर आ गए हों! सो भइया, ये है पेड बनने की कहानी। ऐसे पेड भगवान् करे सबके बनें और बनते रहें। आमीन!
नीलाभ कृष्ण खरे
एसएम्ई शाखा, इंदौर.
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